Sampradaya

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गेलुग

तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग संप्रदाय की उत्पत्ति कदम्पा की परंपरा से हुई, जो महान् भारतीय गुरु अतिश दीपंकर श्रीज्ञान (लगभग 982-1054) से आई थी। गेलुग संप्रदाय की स्थापना महान् आचार्य जे चोङ्खापा लोबसांग डक्-पा (1357-1419) द्वारा की गई थी, जिनका जन्म तिब्बत के अमदो प्रांत के चोङ्खाप क्षेत्र में हुआ था। तीन वर्ष की आयु में उन्हें चौथे करमापा रोलपे दोर्जे ने दीक्षा दी और उनका नाम कुंगा ञिङ्पो रखा गया। बाद में, सात साल की आयु में उन्होंने छो-जे दोण्डुप रिनेछन से श्रामणेर की दीक्षा प्राप्त की और उनका नाम लोबसांग डक्-पा रखा गया। आचार्य चोङ्खापा ने बड़े पैमाने पर तिब्बत की यात्रा की और सभी तत्कालीन तिब्बती संप्रदायों के गुरुओं के साथ अध्ययन किया; मुख्यतः कदम्पा गुरुओं से। विक्रमशिला और नालंदा विश्वविद्यालय के महान् आचार्य, अतिश दीपंकर श्रीज्ञान को 1039 में तिब्बत में आमंत्रित किया गया था और उन्होंने लोबसांग डक्-पा को सूत्र और तंत्र दोनों प्रकार की शिक्षाएँ प्रदान कीं। उनकी शिक्षाओं की धारा जो बाद में खुतोन, ङोक लोच़ावा लोडेन शेरब (1059-1109) और ड्रोमतोन पा ग्यालवई जुंगने (1005-1064) के माध्यम से प्रसारित हुई, कदम्पा परंपरा के रूप में जानी जाती है। आचार्य चोङ्खापा के कई शिष्य थे, उनमें ग्यालत्सब धर्म रिनचेन (1364-1432), खेदरुब गेलेग पलसंग (1385-1438 ई.), ग्यालवा गेंदुन ड्रुप (1391-1474 ई.), जामयांग छोजे टाशी पाल्देन (1379-1449), जामछेन छोजे शाक्य येशे, सम्मिलित हैं। जे शेरब सेन्गे और कुंगा दोण्डुप (1354-1435) प्रसिद्ध विद्वान् थे जिन्होंने वर्षों तक गेलुग संप्रदाय की विचारधारा के उत्तराधिकारी बने रहे।

वर्ष 1409 ई. में, जे चोङ्खापा ने तिब्बत में गादेन मठ की स्थापना की और इस प्रकार गेलुग संप्रदाय मूल नाम गादेनपा के साथ अस्तित्व में आया। बाद में, मठ का गठन दो महाविद्यालयों में किया गया, जिन्हें शारत्से और जंगत्से मठ के नाम से जाना जाता है। इस संप्रदाय के अन्य प्रमुख मठ डेपुङ्, सेरा, टाशी ल्हुन पो, ग्युतोद और ग्युमेद हैं। वर्ष 1416.ई में जे चोङ्खापा के शिष्यों में से एक जामयांग छोजे टाशी पाल्देन ने डेपुंग मठ की स्थापना की। इस मठ की दो मुख्य शाखाएँ लोसेल-लिंङ् और गोमांग मठ हैं। 1419 ई. में चोङ्खापा के एक अन्य शिष्य जामचेन छोजे शाक्या येशे ने सेरा मठ की स्थापना की, जिसमें सेरा जे और सेरा मे मठ शामिल थे। 1447ई. में प्रथम दलाई लामा ग्यालवा गेंदुन ड्रुप ने शिगात्से में टाशी ल्हुनपो मठ की स्थापना की जो पंचेन लामाओं की पीठ बन गई। इन सभी मठों में भिक्षु मुख्य रूप से बुद्ध की शिक्षाओं के सूत्रों पर अध्ययन करते हैं, जबकि तंत्र का अध्ययन और अभ्यास मुख्य रूप से ग्युमे और ग्युतोद नामक अन्य दो मठों में किया जाता है। जे शेरब सेंगे ने 1440 ई. में ग्युमे तांत्रिक मठ की स्थापना की और ग्युछेन कुंगा धोण्डुप ने 1474 में ग्युतोद तांत्रिक मठ की स्थापना की। गेलुग संप्रदाय के मूल सिद्धांतों में महान् भारतीय गुरु अतिश दीपंकर श्रीज्ञान की शिक्षाओं के आधार पर आत्मज्ञान के मार्ग के चरण (लामरिम) शामिल हैं। इस परंपरा के अनुयायी पाँच प्रमुख विज्ञान सीखते हैं। अभिधर्मकोश, प्रातिमोक्षसूत्र, प्रमाणवार्तिक, अभिसमयालंकार, प्रज्ञापारमिता और मध्यमकावतार आदि। सूत्र और तंत्र युगल का अभ्यास इस संप्रदाय का मुख्य उद्दोश्य है जिससे शून्यता की अनुभूति और करुणा और आनंद का मार्ग साकार हो सके।

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