Sampradaya

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कर्ग्युद

तिब्बती बौद्ध धर्म के कर्ग्युद संप्रदाय की उत्पत्ति महान भारतीय सिद्धों नरोपा और मैत्रिपा से हुई है। इसकी शुरुआत दो अलग-अलग प्राथमिक स्रोतों से हुई: मरपा लोचावा (1012-1099) और ख्युंगपो न्यालजोर (978-1079)। मरपा लोचावा पिछली परंपरा के संस्थापक थे। उन्होंने ड्रोमी येशी (993-1050) के शिष्यत्व में अध्ययन किया और अनुवाद का प्रशिक्षण लिया। तदुपरांत सच्ची शिक्षाओं की खोज में उन्होंने तीन बार भारत और चार बार नेपाल की यात्रा की। उन्होंने कई भारतीय गुरुओं के शिष्यत्व में अध्ययन किया, लेकिन मुख्य रूप से महान निपुण आचार्य नरोपा और मैत्रिपा से उन्होंने ज्ञान ग्रहण किया। मरपा लोचावा ने सीधे तौर पर नारोपा (1016-1100) से इस क्षणभंगुर शरीर और चेतना उसका स्थानांतरण, स्वप्न, स्पष्ट प्रकाश और आंतरिक ऊष्मा की तांत्रिक शिक्षाओं ग्रहण किया । नरोपा ने स्वयं भी यह शिक्षा सीधे अपने गुरु तिलोपा (988-1069) से प्राप्त की थी और तिलोपा ने इसे स्वयं बुद्ध की वज्रधारा से प्राप्त किया था । इन महान शिक्षाओं को मार्पा द्वारा तिब्बत लाया गया और बाद में उन्हें अपने सबसे प्रमुख शिष्य मिलारेपा (1040-1123) को अपना समस्त ज्ञान दिया गया । मिलारेपा एकमात्र तिब्बती योगी गुरु थे, जिन्होंने गुप्त मंत्रायण प्रणाली का अभ्यास करके अपने जीवन में ही ज्ञान प्राप्त किया था। मिलारेपा एक ऐसे गुरु थे जिन्होंने मारपा की ध्यान परम्परा को आगे बढ़ाया और न्गोग चोकू दोरजे, त्शुर्टन वांगी और मेटन चेनपो जैसे अन्य लोगों ने मारपा की शिक्षण परम्परा को आगे बढ़ाया। इस प्रकार कर्ग्युद सम्प्रदाय में दार्शनिक ध्यान प्रशिक्षण की दोहरी प्रणाली स्थापित की गई। महान शिक्षक गम्पोपा (1084-1161) और रेचुंगपा (1084-1161) मिलारेपा के प्रसिद्ध शिष्य थे।

गम्पोपा ने मिलारेपा से नरोपा के छह योगों पर सभी महामुद्रा शिक्षा और अभ्यास में प्रशिक्षण प्राप्त किया और उन्हें एक परम्परा के रूप में संश्लेषित एवं सुरक्षित किया। इस धरोहर को कर्ग्युद परंपरा की मातृ वंशावली डाकपो कर्ग्युद के नाम से जाना जाने लगा। शांग्पा कर्ग्युद, कर्ग्युद परंपरा के दो मूल रूपों में से एक की स्थापना ख्युंगपो न्यालजोर (978-1079) ने की थी, वह नेपाल गए, जहां उनकी मुलाकात आचार्य सुमति से हुई। उन्होंने उनसे ग्रंथों के अनुवाद का प्रशिक्षण प्राप्त किया और बाद में भारत की यात्रा की। सैकड़ों से अधिक भारतीय विद्वानों से मिलने और उनसे विभिन्न दार्शनिक और गुप्त मंत्र शिक्षाओं को ग्रहण करने के बाद उन्होंने संपूर्ण बाह्य और गूढ़ सिद्धांतों में महारत हासिल कर ली। उनके मुख्य गुरुओ में सुखसिद्ध, राहुलगुप्त और नरोपा की पत्नी निगुमा थी । बाद में इस वंश को शांग्पा कर्ग्युद परंपरा के नाम से जाना जाने लगा। दगपो कर्ग्युद परंपरा की स्वयं बारह शाखाएँ हैं। इसमें चार प्रमुख सम्प्रदाय और आठ उप-सम्प्रदाय भी हैं। इस सिद्धांत का मूल सिद्धांत महामुद्रा का अभ्यास और नरोपा की छह मुख्य शिक्षाएं हैं। चार स्कूलों में से, कामत्सांग कर्ग्युद की स्थापना पहले करमापा दुसुम ख्यानपा ने की थी। बारोम दारमा वांगछुक ने दूसरे, बारोम कर्ग्युद की स्थापना की। झांग त्सल्पा त्सोंड्रू द्रक्पा ने तीसरे, त्सल्पा कर्ग्युद और फाग्मो द्रुपा ने चौथे, फागद्रु कर्ग्युद की स्थापना की।

ड्रिकुंग कर्ग्युद के आठ उप-सम्प्रदाय हैं, जिनकी स्थापना ड्रिगुंग क्योपा जिग्टेन सुमगोन ने की थी; तकलुंग कर्ग्युद, टैगलुंग थांगपा ताशी पाल द्वारा स्थापित; ग्याल त्शा और कुंडेन रेपा द्वारा स्थापित थ्रोफू कर्ग्युद; द्रुक्पा कर्ग्युद, लिंग्रे पेमा दोरजे द्वारा स्थापित और त्संग्पा ग्यारे येशे दोर्जे, मार्टसांग कर्ग्युद, मारपा ड्रुबथोब शेरब सेंगे द्वारा स्थापित, येल्पा कर्ग्युद की स्थापना ड्रुबथोब येशे त्सेग्पा द्वारा की गई थी; यज़ांग कर्ग्युद, शारवा कल्डेन येशे सेंगे द्वारा स्थापित; और शुगसेब कर्ग्युद, ग्यारगोम चेनपो द्वारा स्थापित। मौलिक शिक्षाओं के प्रति व्यक्तिगत दृष्टिकोण में अंतर के आधार पर विभिन्न उप-सम्प्रदायों का उदय हुआ है। कर्ग्युद परंपरा की अनूठी विशेषता महामुद्रा को सूत्र और तंत्र दोनों की व्याख्याओं के अनुसार समझाया जा सकता है। शिक्षाओं के दोनों पहलुओं का उद्देश्य मन की वास्तविक प्रकृति, स्पष्ट ज्ञान के प्रकाश की प्रत्यक्ष समझ है।

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